Sunday, October 27, 2019

उधेड़बुन -२: दीये और दीपावली

उधेड़बुन -२: दीये और दीपावली





प्रकृति का विधान है। सुबह होती है, तो शाम भी होती है। दिन होता है तो रात भी होती है। मेरी सोच ने भी करवट ली। सुबह की दिनचर्या और दिन के प्रकाश के पश्चात शाम और रात की बारी आयी। आदिकाल से मानव अँधेरे से बचने की कोशिश करता रहा है। वो शायद कल्पना भी नहीं करना चाहता कि यदि अँधेरा इतना ही गैरजरूरी होता तो प्रकृति इसका निर्माण ही क्यों करती। जिस प्रकृति के रहस्यों को आजतक हम समझ नहीं पाए। जिसके ज्ञान के आग विज्ञान हमेशा ही नतमस्तक होता रहा है, वो प्रकृति क्या इतनी स्पष्ट भूल कर सकती है? इस विषय पर मेरी सोच थोड़ी भिन्न है। मैं अंधकार को भी प्रकाश कि ही तरह अत्यंत आवश्यक समझता हूँ। चूँकि ये प्राकृतिक भी है, मेरी सोच थोड़ी दृढ हो जाती है। बहुत सारे कार्य अंधकार के अधीन है। निद्रा उसमे प्रथम स्थान पर आती है। कुछ जीवों के लिए तो अंधकार उसी तरह जीवनदायिनी है जैसे हमारे लिए प्रकाश। और शायद इसीलिए मैंने सोच को आगे बढ़ाया और अंधकार से भी निराकरण कि उम्मीद लगा बैठा।

दीपावली का त्यौहार है। आजकल तो हर तरफ कृतिम बैद्युतिकीय रोशनी दिखाई देती है। दिए तो अतीत कि धरोहर बनाते जा रहे है। जब आदिकाल से जीवंत दियो के बारे में सोचता हूँ तो बरबस एक ख्याल आ जाता है। यकीन हो उठता है कि आजकल के बैद्युतिकीय दिए ज्यादा श्रेष्ठ है। एक बार ले लिया तो कई बार कि छुट्टी। न जलाने का झंझट न तेल भरने और ख़तम होने कि चिंता। ये भी लगता है कि ये प्रकृति के ज्यादा नजदीक है। प्रदूषण भी नहीं फैलाते। मन प्रसन्न हो ही रहा था कि दीये का ख़याल आया। क्या वो बैद्युतिकीय रोशनी कि तुलना में निम्न कोटि का है? क्या यह उसकी कमजोरी है कि वो घी-तेल और बाती के साथ जलते हुए अपना अश्तित्व ही मिटा देता है? ये तो सामान्य नहीं लगा? स्वयं को परमार्थ के लिए मिटा देना कमजोरी तो नहीं हो सकता। ये तो अच्छे अच्छे और अपने को बहुत महान समझने और कहने वालों के वश में भी नहीं होता। तो फिर दीये के खुद को मिटा देने के पीछा वास्तविकता क्या है? कौतुहल जागता है तो आगे सोचना स्वाभाविक हो जाता है।

बहुत परिश्रम नहीं करना पड़ा। दीये कि वास्तविकता तो बिल्कुल अलग दिखाई देने लगी। सदियों से दीये की महत्ता विद्यमान है, इसका अनगिनत और अति-विशिष्ट कारण भी है। सर्वप्रथम तो ये कि दिया हमको अँधेरे में प्रकाश देता है, पर ये भी अविश्वनीय है कि चाहे अँधेरा कितना ही गहरा क्यों ना हो, दीये के आत्मविश्वाश को बिल्कुल अस्थिर नही कर पाता है। इसका ये अभिप्राय हुआ कि दीया अति साहसी है, और हमे साहस की शक्ति दिखाता है। आज के प्रसंग के सन्दर्भ में, सबसे महत्त्वपूर्ण यह गुण दिखता है कि दीया ये भलीभांति जानता है, रात का अंधकार अति विशाल है, उसको पराजित करने के लिए सूर्य जैसे बलवान कि प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, फिर भी वो अपना कर्तव्य निभाता है।  थोड़ी दूर का ही सही, थोड़े कम तीव्रता से ही सही, अंधकार को भगा देता है। उसको इससे प्रभाव नही पड़ता कि कितना अंधकार दूर हुआ, कितना ज्यादा अभी भी बच गया, पर इस बात का सुख और संतोष होता है, उसके आस पास का अँधेरा कम हुआ। कुछ लोगो का ही सही, भला तो हुआ। निश्चित ही ये एक सकारात्मक सोच है। समाज में कितनी ही विसंगतिया क्यों ना हो, हमारे अपने में कितना ही कम सामर्थ्य क्यों ना हो, हमे ये कोशिश करनी पड़ेगी कि हम जितना भी कर सकते हो, समाजसेवा में हमारा एक स्वैक्षिक योगदान हो। और साथ में ये भी ध्यान रखना होगा कि ये योगदान प्राकृतिक नियमो के अनुरूप हो, विरुद्ध नही।

वैसे तो दीये के अशंख्य गुण है, पर सबसे बड़ा है, उसका त्याग। दूसरो को प्रकाश मिले, वातावरण में शुद्धि आये, कीटाणु रुपी अवराधको के विनाश के लिए, और ना जाने कितने लक्ष्यों कि प्राप्ति के लिए, वो स्वयं का महान वलिदान दे देता है। उसको अपनी उपस्थिति से ज्यादा जीवन का उद्देश्य प्यारा होता है, और उसी के लिए अपना सर्वस्व न्योवछवर कर देता है। आगे मै ये कहूँ कि हमें भी यही करना चाहिए तो ये कुछ व्यावहारिक नही होगा। इतना कर पर पाना हमारे वश में नही। मेरा ये आशय कदापि नही है कि ऐसा संभव नही है, परन्तु ये हम जैसे साधारण मनुष्यों के वश की बात नही। ऐसा कर पाने वाला एक दैव पुरुष यो यूँ कहूँ तो युगपुरुष ही होता है। हमारे वेद, पुराण, साहित्य और आधुनिक इतिहास ऐसे अशंख्य वलिदानी महापुरषों के गौरव गाथा से भरा पड़ा है। चाहे प्रसंग महर्षि दधीचि का हो, चाहे वीर हमीद का, हमारे ऐतहासिक गणमान्य महामानवों ने हमें समय समय पर इसका स्मरण कराया है। मुझे तो गर्व होता है कि हम ऐसे देवभूमि पर जन्म लिए, जहा त्याग, तपश्या, और परोपकार कण कण में विराजमान है। कष्ट है तो बस इतना कि इसपर स्वार्थ की  एक मैली धुल चढ़ गयी है। परोपकार का दिखावा कर, अपना ही हित साधने में हर कोई लगा है। पर अभी भी कुछ लोग इसका अपवाद बन, अपना सर्वश्व समाज हित में अर्पण किये जा रहे है। मैं ऐसे सभी महापुरुषो का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।

दीये के साथ थोड़ा दीपवाली का समरण भी अनिवार्य हो जाता है। दीपावली का मुहूर्त काल मुझे सर्वाधिक प्रासंगिक दिखाई देता है। वर्षा ऋतू समाप्त हो रही है, शरद ऋतू का आगमन हो रहा है। वातावरण में, जल-जमाव और नमी के कारण तरह तरह के कीटाणुओं कि उपश्थिति है, ऐसे में दीपावली एक छिपे उद्देश्य के साथ आता है।  दीपावली के पर्व पर सहस्रो दिए अपना वलिदान देकर वातावरण को कीटाणुरहित और शुद्ध करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।  समाधान के कोशिश के साथ साथ उसका समय भी अति-महत्वपूर्ण होता है, इसका भी ध्यान रखना चाहिए।और यहाँ पर ये समझाना सहज हो जाता है, अनमने कर्त्तव्य और सुरक्षित मनोभाव के साथ जलते हुए विद्युतिकीय प्रकाश स्रोत हमें विपरीत दिशा में ले जाते है। कुछ ऐसा ही प्रयत्न हम आज के समाज में देख रहे है। ये उपयोगी कम, नुकशानदेह ज्यादा है। समाज कि विसंगतियों को दूर करने के लिए हम सबको अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वेक्षा से से सहयोग तो करना ही होगा, पर साथ में प्राकृतिक मूल्यों का ध्यान भी रखना पड़ेगा। अन्यथा आनेवाली पीढ़ियों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। दीये और दीपवाली के सहारे कुछ उत्तर ढूंढने का छोटा प्रयत्न किया, अभी बहुत प्रश्नो के उत्तर बाकी है। अपने प्रयत्न करने पर थोड़ी तृप्ति भी है, और आगे सोचने का उत्साह भी है। 

समय और मष्तिस्क के गाड़ी बिना रुके अनवरत चलती चली जा रही है।  फिर कोई सांकेतिक थनहराव आया तो विचार व्यक्त करूंगा। अभी के लिए आपका धन्यबाद!!

Saturday, October 26, 2019

उधेड़बुन -१: दीये और दीपावली


उधेड़बुन -१: दीये और दीपावली



सुबह सुबह जब सोकर उठा तो सोचा थोड़ा घर से बाहर निकलूं| बाहर देखा कि कुछ काम आय वाले निवासी फूलों का ठेला लगा रहे थे| यह उनका दैनिक ब्यवसाय नहीं है, पर उन लोगों ने सोचा होगा कि दीपावली का त्यौहार है, चंद फूलों के बदले कुछ पैसे अर्जित कर लेंगे| मैंने अपनी कल्पना को थोड़ा अनिरुद्ध कर दिया, सोचने लगा कि इन फूलों को खरीदेगा कौन? शायद मैं, शायद आप, शायद आप और हमारे जैसे कुछ और लोग| हम और आप इन फूलो से अपना घर सजायेंगे, दीपावली पर अपने देवी देवताओं का आव्हान करेंगे, प्रसन्न करेंगे और शायद पङोसियों से एक सांकेतिक प्रतिद्वंदिता भी करेंगे| ये फूलवाले ऐसा कुछ नहीं करेंगे, अगर फुल बिक गए और कुछ मुनाफा हुआ तो शायद कुछ तेल, घी, शक्कर खरीदेंगे| जब हम कृतिम रोशनी से घर जगमगाएंगे, जब हम अपनी और दूसरे की आतिशबाजियों का अवलोकन करेंगे तो शायद ये हर दिन से अलग कुछ प्रसाद ग्रहण कर तृप्ति का अनुभव करेंगे| मैं ये तो नहीं कहता कि किसकी ख़ुशी जयादा होगी, वो खुद आत्मचिंतन का विषय है , पर ये अवश्य कहूंगा की मुझे एक असमानता का एहसास होता है, और आज भी हुआ |

अब मस्तिष्क इस असमानता का कारण  खोजने लगा, और थोड़ा उसके समाधान के बारे में भी सोचने लगा| प्रश्न तो छोटा दिखता है पर मेरे लिए तो बहुत बड़ा था, चिंतनीय था| समाधान सोच पाऊँगा ऐसी कल्पना तो प्रारम्भ से ही नहीं थी , हाँ एक कोशिश जरूर करना चाहता था, अतः आगे बढ़ा |

मै स्वयं एक निम्न आय परिवार से आता हूँ, मौसम के सारे रंग देखें है, शायद उष्णता थोड़ी ज्यादा ही थी और लंबी भी थी इसलिए थोड़े पुराने और ज़िद्दी हो चुके कारक भी है, जो रह रह कर अपनी उपश्थिति का एहसास कराते है| पर अगर मेरा कभी उनसे सम्बाद हो पाता तो शायद मैं उनसे यही कहता की आप तो मेरी सुनहरी यादो के धरोहर हो, मैं तो स्वयं आपको याद कर अंतर्मन में प्रसन्न हो लेता हूँ, आपके शिवाय और कोई प्रसन्नता भी तो नहीं मिली| आपको अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की ब्यर्थ परिश्रम की आवश्यकता नहीं है, आप ही तो सुब कुछ हो| मैं आपको स्वयं ही साथ रखता हूँ| जैसे रेगिस्तान में पानी की बूँद प्रसन्नता देती है, जैसे डूबते को तिनके का सहारा प्रसनता देती है, जैसे भूखे को सुखी रोटी प्रसन्नता देती है, वैसे ही मेरी अति सूक्ष्म, अति लघु उपलब्धिया मुझे प्रसन्नता देती है| खुशियों का आकार इसपर नहीं निर्भर करता है कि वो कितनी बड़ी हैं, बल्कि इसपर निर्भर करता है की जरूरत कितनी बड़ी थी| जो पानी की बूँद रेगिस्तान में प्रसन्नता का कारण बनती है, वो ही पानी बाढ़ की मात्रा में त्रासदी बन जाती है| विचित्र किन्तु सत्य है कि हम असीमित संसाधनो की कोशिश में जीवन पर्यन्त कोशिश करते हैं, पर मिडास जैसी कहानियों से कुछ सबक नहीं लेना चाहते| शायद असमानता का एक यह भी बड़ा कारण है | अपनी बात उठाने का सिर्फ ये आशय था कि परिस्थितियों से भिज्ञ हूँ, हर अनुभव से गुज़रा हूँ, इसलिए इस विषय पर सोचने की एक छोटी कोशिश कर सकता हूँ |

पहले कारण पता लगे तभी तो समाधान की कोशिश संभव है| कारण पता लगाने में ही त्रुटि हुई तो समाधान सोचना भी ब्यर्थ होगा| सोचना शुरू किया कि असमानता का कारण क्या है। शायद शिक्षा का आभाव, शायद गरीबी, शायद कोई और लाचारी| तो क्या इसका समाधान आसान नहीं है? अशिक्षित को विद्यालय पहुचाएं, गरीब को थोड़े पैसे दें, दुखियारी कि मदद कर दें| पर किस किस की और क्यों? जब दो बच्चे विद्यालय में प्रवेश लेते हैं, एक खूब मन लगाकर पढ़ता है, दिन को दिन नहीं, रात को रात भी नहीं समझता है, क्या इसीलिए की वो उसी के समान हो, जो कभी विद्यालय ठीक से नहीं गया? कभी ठीक से पढाई नहीं की? हमेशा मौज मस्ती में लगा रहा? एक आदमी ने बहुत मेहनत की, सारी जिम्मेदारियां भी उठाई, अपनी जरूरतो को सीमीत रखा, क्या उसको उसी के बराबर होना चाहिए जिसने कभी मेहनत नहीं की? कभी सही काम नहीं किये? जब एक ब्यक्ति चोरी करता है, और कई तरह के गलत काम करता है तो उसको सजा मिलती है, साथ ही उसके आश्रितों को भी सजा मिल जाती है, ऐसे में समानता कैसे आएगी? एक आदमी एक छोटा सा घर बनाने के लिए सारी जीवन-पूँजी लगा देता है, तो क्या समानता के लिए दूसरे को मुफ्त घर दे दिए जाय? उनकी नियम विरुद्ध सम्पति को सही करार दे दिया जाय? सही व्यक्ति की संशाधन का हिस्सा जबरन उस लाचार ब्यक्ति को दे दिया जाय? क्या इससे समानता आएगी? अगर ये लगता है की ये एक पक्ष के लिए अवश्यक है तो ये भी सोचना पड़ेगा की इससे सही, मेहनती और कर्तब्यशील को क्या सन्देश जाता है? आने वाली पीढ़ी को क्या सबक देंगे? कैसे समझायेंगे की मेहनत और ईमानदारी अति अनिवार्य है? और क्या ये समानता सही है? नैतिक है? इससे प्राकृतिक नियमो का उल्लंघन नहीं होता? जानता हूँ, इसके दो पक्ष है, दोनों के अपने तर्क भी होंगे? मैं किसी एक तर्क का पक्ष या दूसरे का खंडन नहीं करता| मैं बस ये कहता हूँ की प्रश्न इतना आसान नहीं है और इसका उत्तर तो ये कदापि नहीं हो सकता है ! सही उत्तर खोजने के लिए समस्या के तह में जाना बहुत आवश्यक है| इसके मूल कारण क्या है? हमको हर बार और बार बार ये कोशिश करनी होगी कि हर गरीब लाचार जरूरतमंद की मदद हो पर मदद की पहल वो स्वयं करे| उसे जब भी लगे की शिक्षा से उसकी मदद हो सकती है तो शिक्षा का अवशर हो, अगर उसको लगे के मेहनत से उसकी मदद हो सकती है तो उसको व्यवसाय का अवशर हो| कुछ इसी तरह समस्या और लाचारी के मूल जड़ों को समझना और उनका उसी तरह समाधान ढूंढना पड़ेगा| अन्यथा गलत ब्यक्ति इसको अपना हक़ समझने लगेगा और सही ब्यक्ति की प्रेरणा कमज़ोर पड़ जायेगी| ऐसा होने पर हम आगे की बजाय पीछे की ओर जाने लगेंगे| अभी के लिए इतना तो समझ आता है की पहला कदम गलत सोच के प्रसार को रोकना जरूरी है| ठीक उसी तरह जैसे एक चिकित्षक किसी बीमारी के इलाज़ में करता है| बीमारी ठहरे तो उपचार की उम्मीद भी जगे|

सोच ने दिशा बदली| सोचने लगा कि जीवन रंगो की तरह है| जीवन में नौ भाव होते है, और रंग सात तरह के होते है| सारे एक साथ हो तो दिखाई नहीं देते (सफ़ेद) और कोई रंग ना हो (काला) तो कुछ दिखाई नहीं देता| हर रंग का अपना भाव भी होता जैसे हरा खुशहाली का भाव लाता है तो लाल बहादुरी का| सबके मिल जाने पर सफ़ेद बनता है, जो सबसे अच्छे भाव का लगता है मुझे| सफ़ेद रंग का भाव है - शांति! कितना बिचित्र सा संयोग है| सबके मिलने से शांति का भाव बनता है| जितना शांत भाव है, उसको पाना उतना ही कठिन| यक्ष प्रश्न सदियों से यही है कि सबको मिलाये कैसे| सूरज तो देवता हैं| रंगो को आसानी से मिला लेते हैं| इन्शान कर नहीं पाता या यूँ कहूँ की कोशिश भी नही करता| इन्शान ने हर रंग के लाइट बना लिए पर सूर्य के प्रकाश का लाइट आज भी नहीं बना सका है| तुलसी दास जी भी यही लिखते है "जहाँ सुमति तहा सम्पति नाना", पर सुमति तो एक कल्पना ही लगती है मुझे| मेरी क्षमता में नहीं है तो क्या हुआ, समाधान कि कल्पना तो अवश्य है| इसीलिए तो तुलसी दास जी ने लिखा। उनको लगा कि आम इन्शान भले ही इसको मुश्किल समझे पर एक खाश इन्शान के लिए तो संभव होगा। इसलिए सोचता हूँ, शायद ये भी एक समाधान हो सकता है कि सुमति कि कोशिश करें। पूरा नहीं तो थोड़ा सुधार तो अवश्य आएगा।

सोचता जा रहा था, थोड़ी उम्मीद तो दिखी पर बहुत कुछ और स्पष्ट होने लगा है| बिल्कुल एक समुद्री हिमशैल की तरह| जितना छोटा ऊपर है, उससे कही ज्यादा विशाल नीचे है| समझ में आया कि जिसको पहले से ही मुश्किल मान रहा था वो तो संभव  जैसा है| थोड़ा ज़िद्दी भी हूँ तो हार भी नहीं मानूंगा, बस कुछ नए प्रश्न है, जिनका उत्तर खोजना है| उम्मीद है, मंज़िल मिलेगी| ज़िन्दगी की रेलगाड़ी है, मंज़िल पर पहुँचने का उद्देश्य है| रेलगाड़ी में कोई आशियाना तो नहीं बनाता| मुसाफिरों की तरह ही सोच बनानी ही पड़ेगी| और कोई मार्ग नहीं है, ढूंढना भी नहीं है, बस मंजिल को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना है| बढ़ते ही जाना है| अगर हो सका तो कुछ उत्तर जरूर ढूंढ जाऊंगा, उसकी कोशिश अनवरत चलती रहेगी| समर्थ नहीं हूँ, पर सोचता तो हूँ| कुछ कर पाया या नहीं, करने कि कोशिश तो करता हूँ| इस उम्मीद में कोशिश करता रहूंगा कि सफलता मिलेगी, पूरी नहीं तो आंशिक ही सही| 

फिर आऊंगा अपने बढ़ाते विचारो के साथ|| दीये और दीपावली का मेरी सोच से गहरा सम्बन्ध है| ये समाधान की प्रेरणा देता है| खंड-२ में लिख रहा हूँ, पढियेगा||

दीपावली की शुभ कामनाएं ! भगवान् करे सबको वो सब मिले जो वो चाहता है!!!

Thursday, March 11, 2010

Perception: A fragile thing (non-material) which I tend to ignore

Most of the time, when I wonder about most fragile thing around me, I end up with a different answer. If I find any fragile item around me, I will try taking extra care for them. For example, if I am handling electric bulbs, I will take extra care so that it doesn’t fall on the hard floor and breaks. If I am handling Chinese clay pots, I will be extra careful as I consider them as fragile items. If I start thinking of a list of items which are considered to be fragile, my list keeps growing without any end in horizon. Sometimes I consider my life itself is a fragile thing as I am not sure about the next moment itself. These are all the things whether physical or non-physical and I try to take required care. But none of the times, I consider my perception as a fragile thing. Some people are so confident about their perception that they can bet on the stability of their perception. More or less I was also the same but now I am trying to change.


It’s good if I manage to create strong perception about anything and I make my decision based on it. But assuming that my perception is correct and going to remain correct is not always true. I may consider that my perception about particular thing or action or thought is strong and it’s not going to change. I may be true for sometime, I may even be true for my entire life. But as soon as I learn about the other aspect of that thing or action or thought, it doesn’t take long in changing the perception no matter how confident I was about it sometime back.


Sometimes we make bigger mistakes just because of wrong perception. When I say wrong perception, I mean a perception made based of few sides while other sides are unknown. To take an example, let’s consider one story of a movie. In the movie, the actress turns into a bar dancer just to raise the nephew of the actor. Without knowing the cause when actor gets to know about actress profession, he becomes furious. He starts hating the actress the most. He is right because he has a perception about this profession that it’s bad profession. He is also aware of only side of the actress that she is involved in a profession which he considers bad. As story moves, the actor comes to know about the other side of the actress profession. This side is about the cause of the profession. She turned into that profession just to raise an orphan kid and coincidently actor’s nephew. Now the perception of the actor is completely changed about the actress. He thinks that she is a great person who sacrificed her joy of the life for someone else.


I think this is not a very unique story. I can see many similar stories happening all around all the time. This can be seen/read/felt often in case of disputes. Both the sides involved in the dispute are having different perceptions of the same thing/fact/action and hence they took/want to take different actions. Until unless I not learn about all the side of the thing/fact/action; I can not think about right or wrong side. This is not an easy job and that’s why I consider the job of a judge as a highly challenging. They really deserve the honor.


Having seen/known all these stories since so long, it’s surprising that I rarely think about validity of my own perception and probably I give too much weight to my perception at the time. But now I am trying to be a changed man. What I want to do now is to try my best to learn/discover all sides of the fact and then make the perception. It’s really difficult if not impossible to discover all the sides and so the making a correct perception. And hence I want to balance the weight given to my perception while making any decision and leaving a room for some undiscovered sides. If I don’t keep a room, I may end up as a complete looser without any chance to recover. I would try to implement this in my day to day activities and especially in case of relation management.

Tuesday, March 9, 2010

Why different reactions by two people/same person in same scenario

Recently I watched a Bollywood movie titled "My Name is Khan (MNIK)" starred by popular Bollywood actor Shahrukh Khan. There was a lot of controversy in India during release of this movie and hence I was curious to watch this move. After watching this movie, I remembered another Bollywood movie title as New York. I think it was released a year back.

I noticed one ideological difference in the story of these two movies. While in New York, when the actor is detained by police, he turned into revenge mode. This leads him to become a terrorist and losing his life along with the closer ones towards the end of the movie. On the other hand, when the actor in MNIK was detained by police, he remains in cooperative mode and wins the trust of people/administrators by the end of the movie. This might be true even in real life.

What makes me to think is, why and how two people behave differently in same scenario. When I think a little, I get an answer immediately. Since we are humans and not machines, our mind is free to think in all possible directions. Every fact has multiple sides. A human reaction depends on the mind state at the time, general nature of the person and his ideological inclination. I person with aggressive mind state at the time may start seeing more value by taking revenge while a person with cool mind state at the time may start seeing more value in winning the trust and make the other party feel its mistake. You must note that I am not talking about two different people; I am talking about two mind states. Same person can react in two different ways against the same action. This is why and this is how human mind is different than a machine.

This ideological difference is not something which started today or in last few years. This difference is there since ages and its pretty much part of our day to day activity as well. It's a different story whether we notice it or not. Just to give one example, it may happen that you go to your friend (when he is upset with something) with a very good proposal, he might turn it down, while the same friend as accepted less quality proposals in the past. He might accept the same proposal later when his mind state changes. Another example you might see that two people are having hot discussions at a certain topic. Some time later, they exchange apology without any external interference. This is all because of the mind state change because they are still the same people as few hours/day back.

In my opinion, this is a human nature and it is absolutely uncontrolled. Then next question is what should be done in this scenario. If you think a little, the answer is right there. Though the immediate reaction is uncontrolled but it is influenced by the mind state. If not fully, at least we should try to control our mind state by remaining calm irrespective of the situation. Once done, we can easily realize that our behavior is more consistent and even instantaneous reactions are inline with the long term decisions made.